बुधवार, 27 अप्रैल 2011

कविता

सिर्फ तुम्हारी 

बैठता  हूँ जब जब 
इंतजारमें मैं तुम्हारे
श्रृंगार का सभी सामन लिये
तुम लाख बुलाने पर भी
नहीं आती तो नहीं आती | 
जब आती हो तो आ जाती हो 
कभी भी कहीं भी अकेले में
मेले में या झमेले में |
झकझोर कर
अपने नरम नरम हाथों से
कन्धों को मेरे कहती हो
  समेट लो मुझे बाहों में अपनी
और करो मेरा श्रृंगार 
जी भर छंद उपमा
और अलंकार से
मैं तुम्हारी हूँ
सिर्फ तुम्हारी  |
                                     अनंत आलोक 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

वंदना

गौरी तेरी छवि है
विद्या की तू है देवी
ए हंस वाहिनी मां
पूजा करूँ मैं तेरी 
आ जा तू मेरे दिल में 
दिल पर विराज हो जा
छोटा सा दिल है मेरा
जिस पर हो राज तेरा
पढ़ना हमें सिखा दो
लिखना हमें बता दो
विद्या का दान दे माँ 
जीवन सफल बना दो
ग्रंथों में तू लिखी है
पुराणों में तू छिपी है
जिस ओर देखता हूँ
मुझे तू ही तू दिखी है 
मीकी को तुने तारा 
तुलसी भी तेरा प्यारा
ये रविन्द्र मीरा बाई
मुंशी  भी था तुम्हारा
कहता आलोक तेरा 
सब को है तुने तारा 
अपनी शरण में लेकर 
उद्हार कर हमारा

रविवार, 17 अप्रैल 2011

मुक्तक

अब आदमी का इक नया प्रकार हो गया
आदमी का आदमी शिकार हो गया 
जरूरत नहीं आखेट को अब कानन गमन की
शहर में ही गोश्त का बाजार हो गया

  खुदा की एक खूबसूरत नैमत हैं बच्चे 
ये बचे न गर होते , लगता आँगन सूना सूना
खुशियों के चमन खिलते हैं जहाँ होते हैं बच्चे

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

हाइकू

झरना झर
दिन रात बहता
पानी ठहरा
जंगल बल
जलता जाय फिर
बारिश खाता
 
किताबें भरी
पुस्तकालयों में
हैं धूल खाती

  महंगे लेप
बदल न सकते 
असली रंग

पौधे बहुत
आँगन फुलवारी
सजावट को

  निश्चित नहीं
आएगा वापस वो
गया सुबह 

मर चूका है
इंसान भीतर
आदमी तेरे

रहना जिन्दा
जिंदगी में करले 
काम  जिन्दों के

जाता कहाँ है
फेर कर मुंह को 
करके खता

रह जाएगा
ये स्वर्ण खजाना
धारा यहीं पे